Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Ajay Krsna Das

India, Vrindavan

     परम गुरुदेव की शतवार्षिकी आविर्भाव तिथि के उपलक्ष्य में उनके श्रीचरणकमलों में पुष्पांजलि

सर्वप्रथम मैं अपने परम प्रिय गुरुदेव ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्रीश्रीमद्भक्ति वेदांत माधव गोस्वामी महाराज के श्रीचरणकमलों में अनंत कोटि दंडवत प्रणाम ज्ञापन करता हूं | तदनंतर परम गुरुदेव नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्रीश्रीमद् भक्तिवेदांत नारायण गोस्वामी महाराज के श्रीचरणकमलों में अनंत कोटि दंडवत प्रणाम ज्ञापन करता हूं |

किशोरावस्था से ही मेरे मन में भगवान् को जानने की इच्छा उत्पन्न हो गई थी | जहां तक मुझे स्मरण पड़ता है, सबसे पहले मैं श्रीरामानुज संप्रदाय के एक स्वामी जी से मिला जो प्रत्येक वर्ष सर्दी के दिनों में लगभग 1 मास के लिए बद्रीनाथ से हमारे घर, जो नजीबाबाद में है, आया करते थे तथा मैं उनकी भोजन इत्यादि की व्यवस्था करता था | संध्या के समय प्रतिदिन उनका प्रवचन होता था | जब उन्होंने श्रीरामनाम की महिमा सुनाई, तो मेरे मन में भगवान् से मिलने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई |

जैसे-जैसे समय व्यतीत होता रहा, मैं अनेक संप्रदायों के साधु-महात्माओं के दर्शन करता रहा, धार्मिक ग्रंथों का अनुशीलन करता रहा, लेकिन मेरे मन में जो एक प्यास थी, वह कभी भी शांत नहीं हो पायी | इसी बीच मेरी शिक्षा पूर्ण हुई, सरकारी नौकरी लगी, विवाह हुआ, बच्चे हुये, लेकिन मन में हमेशा अशांति ही बनी रही | मुझे कभी यह समझ ही नहीं आया कि मैं जीवित क्यों हूं?

लगभग 7 वर्ष पहले बरसाने की परिक्रमा करते हुए, चिकसौली ग्राम में एक महात्मा की कुटिया पर मैंने मेरे परमगुरुदेव नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत श्रीश्रीमद् भक्तिवेदांत नारायण गोस्वामी महाराज के चित्रपट में उनका दर्शन किया | उनकी गंभीर नीली-नीली आंखों ने मेरी अंतरात्मा को अंदर तक झकझोर दिया | उनके चेहरे पर मुझे कुछ ऐसे भाव दिखाई दिए मानो कह रहे हों- "अभी तक तुम कहां थे? यह वृंदावनधाम ही तुम्हारा वास्तविक आश्रय स्थल है"| उन्हें देखकर हृदय में एक खिंचाव तो अनुभव हुआ लेकिन फिर भी मैंने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि उनका नाम क्या है ? इसका कारण यह था कि परमगुरुदेव के उस सुंदर रूप को देखकर मैंने उन्हें एक विदेशी समझा |

उन्हीं दिनों मैं अपने भौतिक जीवन से लगभग निराश सा हो गया था तथा राधाकुंड पर जाकर परिक्रमा किया करता था | वहीं पर परिक्रमा करते-करते एक दिन भगवान् की कृपा से मुझे मेरे ज्येष्ठ गुरुभ्राता से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | परिक्रमा करते-करते ही मैंने अपने मन की सारी व्यथा उनके समक्ष निवेदन करते हुए एक सद्गुरु को प्राप्त करने के लिए जिज्ञासा व्यक्त की (इससे पहले मैं राधाकुंड पर कई बाबा लोगों से मिल चुका था, लेकिन मेरा मन कहीं भी नहीं टिका) | मेरे गुरुभ्राता ने ही कृपा करके मुझे अगले दिन श्रीगिरिधारी गौड़ीय मठ, गोवर्धन जाकर मेरे गुरुदेव से मिलने के लिए कहा | बस फिर क्या था, उस रात्रि तो मैं ठीक से सो भी नहीं पाया कि कब सुबह हो और कब मैं मठ में जाऊं | प्रातः ठीक 11:00 बजे जब मठ पहुंचकर मैंने परमगुरुदेव की भजन कुटी में प्रवेश किया, तो वहां पर परमगुरुदेव का वही चित्रपट देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया तथा सोचने लगा - "आखिरकार, बुला ही लिया आपने मुझे"!

तभी मुझे मेरे गुरुदेव भक्तिवेदांत माधव गोस्वामी महाराज जी के दर्शन हुए, जिनके समक्ष मैंने लगभग आधा घंटे में अपने पूरे जीवन वृतांत को खोल कर रख दिया | उनका आचरण देखकर मन ही मन मैंने उन्हें गुरु के रूप में वरण तो कर लिया, लेकिन एक विचित्र भय ने मुझे आ दबोचा | मैंने सोचा कि मैंने तो इन्हें अपना गुरु मान लिया लेकिन यदि इन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मेरा क्या होगा ? इस विचार ने मुझे भीतर तक हिला दिया तथा मैं अपने भावों को संवरण करने में असमर्थ हो गया |

गुरुदेव ने मुझसे कुछ प्रश्न पूछे जिनका मैंने भरे हृदय से उत्तर दिया | मेरे हाथ में उस समय तुलसी की माला थी, जिस पर मैं महामंत्र का जप किया करता था | गुरुदेव के कहने पर मैंने उन्हें वह माला दिखाई तथा उसी माला पर उन्होंने मुझे "हरिनाम" प्रदान किया | मेरे लिए यह एक आश्चर्यजनक रूप से अप्रत्याशित क्षण था, जब गुरुदेव ने मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करते हुए कहा कि आज से मैं ही तुम्हारा स्पिरिचुअल फादर हूं | उनका इतना कहना था कि मेरी आंखें भर आयीं, मानो मुझ जैसे एक अनाथ तथा अधम जीव को पूरा साम्राज्य ही मिल गया हो |

बाद में मुझे समझ आया की किस प्रकार परमगुरुदेव ने मुझे चित्रपट के माध्यम से अपनी नीली-नीली आंखों के द्वारा मेरे हृदय में प्रवेश करके, अपनी ओर आकर्षित कर लिया | यह मुझ जैसे तुच्छ जीव पर उनकी अनंत कृपा है, जो संपूर्ण रूप से संसार के विषयों में डूबा हुआ था |

वे सदैव मुझ पर इसी प्रकार की कृपा करते रहें जिससे मैं इस शेष जीवन में किसी भी प्रकार उनकी सेवा करने के योग्य हो सकूं |

अजय कृष्ण दास

श्री रूपसनातन गौड़ीय मठ, वृंदावन