Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sripad B.P. Vishnu Maharaja

India, Una, Himachal Pradesh

शुद्ध-गौड़ीय-मतके वास्तविक-रक्षक

श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ।।
–(श्रीमद्भागवतम् 9/4/68)

“भगवान् श्रीविष्णु श्रीदुर्वासा मुनिको बतला रहे हैं कि मेरे शुद्धभक्त सदा मेरे हृदयमें निवास करते हैं और मैं भी उन शुद्धभक्तोंके हृदयमें सदैव निवास करता हूँ। मेरे शुद्धभक्त केवल मेरे अतिरिक्त कुछ नहीं जानते तथा मैं भी उन भक्तोंके अतिरिक्त किसी अन्यको नहीं जानता।”

आज मुझे भी भगवान्‌के शुद्धभक्त श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीके शुभ शतवार्षिक-व्यासपूजा-महोत्सवके उपलक्ष्यमें उन्हींके पावन दिव्य-चरित्रका गुण-कीर्त्तन करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

वैष्णवेर गुणगान, करिले जीवेर गाण,
शुनियाछि साधु-गुरुमुखे।
–(चैतन्य चरितामृत)

“वैष्णवोंके चरित्र गुणगान करनेसे ही जीवका वास्तविक उद्धार होता है, यही गुरु-वैष्णवोंके मुखारविन्दसे श्रवण किया गया है।”

· श्रील महाराजजीका वैशिष्ट्य -

श्रील महाराजजी रूपानुग वैष्णवधाराके परम रसिक साधु थे। अपने गुरुदेव श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीके मनोऽभीष्टको पूर्ण करनेके लिये उन्होंनें सदा अपनी ओजस्वी वाणी तथा लेखनीसे गौड़ीय-सारस्वत-धाराका निरन्तर प्रचार-प्रसार किया। श्रील प्रभुपाद द्वारा स्थापित श्रीनवद्वीप-धाम-परिक्रमा तथा व्रजमण्डल-परिक्रमाको जैसे-जैसे श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज सञ्चालित करते थे, वैसे ही निरन्तर श्रील महाराजजीने भी उस कार्यको सुचारु रखा। पारमार्थिक सेवा हेतु जगत्‌ उद्धारके लिए देश-विदेशोंमें मठ-मन्दिर स्थापित किये।

· सम्प्रदाय-रक्षा हेतु पाषण्डियोंका दमन-

श्रील महाराजजीने अपने गुरुदेवके पद-चिन्होंका अनुसरण करते हुए पाषण्डियों, सहजियाओं, मायावादियों तथा असत् विचारधाराओंका भी दलन किया। एक बार व्रजमें ही कुछ पाषण्डियोंने श्रीमन्महाप्रभुके संन्यासवेश एवं उसकी प्रणालीको निरर्थक बताया, भागवत-गुरु-परम्परा तथा गौड़ीय-सम्प्रदायका मध्वानुगत्य अप्रमाणिक बताया। जब श्रील महाराजजीने यह सब देखा और सुना, तो सम्प्रदाय रक्षा हेतु "प्रबन्ध-पञ्चकम्" ग्रन्थको प्रकाशित किया और उक्त विचारकोंके मतको खण्डित करके चूर-चूर किया। उनका यह ग्रन्थ ""प्रबन्ध-पञ्चकम्" शुद्ध-गौड़ीय-वैष्णवोंके लिये रतनके समान है।

· श्रील रूप गोस्वामीपादके मनोऽभीष्टको पूर्ण करनेवाले

श्रील महाराजजी श्रीमन्महाप्रभुके प्रियजन श्रील रूप गोस्वामीपादकी तिरोभाव-तिथिके उपलक्ष्यमें श्रीरूप-सनातन गौड़ीय मठ, वृन्दावनमें त्रिदिवसीय महोत्सवका आयोजन करते। आज भी मुझे स्मरण होता है कि कैसे व्रजरसिकजन उस सभामें उपस्थित होते, रसिकजनोंके मुखसे श्रील रूप गोस्वामीपादकी महिमाका कीर्त्तन श्रवणकर श्रील महाराजजी भाव-विभोर होकर श्रील रूप गोस्वामीपादके विरहमें व्याकुल हो जाते। श्रील महाराजजीकी ये अनुपम दिव्य-सेवा आज भी श्रील रूप गोस्वामीके विरह-महोत्सवके रूपमें उनके आश्रितजनोंके द्वारा निरन्तर चल रही है।

· श्रील प्रभुपादकी बृहद-मृदङ्ग सेवाके वास्तविक सेवक -

श्रील प्रभुपादने बृहद-मृदङ्ग सेवाके अन्तर्गत जैवधर्म, भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, चैतन्य-चरितामृत, उपदेशामृत, वेदान्तदर्शन तथा सज्जनतोषणी आदि-आदि अनेक ग्रन्थ प्रकाशित किये। श्रील महाराजजीने अति यत्नपूर्वक श्रील प्रभुपादके मनोऽभीष्टको पूर्ण करनेके लिये न केवल इन सभी ग्रन्थोंको, अपितु अन्यान्य गौड़ीय-आचार्योंके भी ग्रन्थोंको राष्ट्रभाषा हिन्दीमें ही नहीं विश्वकी अनेक भाषाओंमें अनुवादित करके प्रकाशित किया। विश्वव्यापी गौड़ीय-वैष्णव पाठकगण इस कार्यके लिये श्रील महाराजजीके चिरऋणी रहेंगें।

· समस्त गुरुवर्गोंको गुरुत्व देनेवाले महान आचार्य-

श्रील महाराजजी अपने सभी गुरुवर्गोंको अपने गुरुदेवसे अभिन्न मानते और उनके शिष्यों तथा परशिष्योंको भी अपना ही समझते तथा उनका परमार्थिक-पोषण एवं संशोधन भी करते। किसी भी मठकी कोई भी समस्या हो, श्रील महाराजजी उसका निवारण तुरन्त कर देते। मैं स्वयं उनकी कृपासे वञ्चित नहीं हूँ, मेरे ब्रह्मचारी जीवनमें कई बार श्रील महाराजजीने कृपापूर्वक मेरा संशोधन किया। आज भी उनकी शिक्षाएँ मेरे जीवनमें मेरा मार्गदर्शन करती हैं।

श्रील महाराजजी रूपानुग-धाराके परम रसिकाचार्य थे एवं वे श्रील रूप गोस्वामीपादके मनोऽभीष्टको पूर्ण करनेके लिये ही हमारे बीच पधारे थे। मैं अपनी वाणी पुष्पाञ्जलिके द्वारा श्रील महाराजजीके श्रीचरणोंमें इसी प्रार्थनाके साथ अपना मस्तक रखता हूँ कि वे सदा अपना कृपा- आशीर्वाद मुझ दीन पर रखें।

तोमर किङ्कर आपने जानिल। गुरु अभिमान त्यजि।।
तोमर उच्छिष्ट पद-जल-रेणु। सदा निष्कपटे भजि।।
–(कल्याण कल्पतरु)

“हे वैष्णव ठाकुर! आप मुझपर कृपा करें जिससे कि मैं गुरु होनेका अभिमान त्यागकर अपनेको आपका दास मान सकूँ तथा आपके उच्छिष्ट प्रसाद, चरणामृत तथा पदधूलिको निष्कपट होकर ग्रहण कर सकूँ।”

श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीकी जय!

तदीय शतवार्षिक-व्यासपूजा-महोत्सवकी जय!

श्रीगुरु-वैष्णव दासानुदास

श्रीभक्तिप्रसाद विष्णु महाराज

(उना, हिमाचल प्रदेश)