Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sripad B.S. Keshav Maharaja

India, Vishakhapatnam

रसिक वैष्णव – श्रील महाराजजी

यह अत्यन्‍त सौभाग्य एवं प्रसन्नताका विषय है कि श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्‍त नारायण गोस्वामी महाराजजीकी शतवार्षिकी व्यास-पूजा तिथि हम लोगोंपर कृपा करनेके लिए उपस्थित हुई है। मैं उन भक्तोंका अत्यन्‍त आभारी हूँ जिन्होंने मुझे श्रील महाराजजीके जीवन-चरित्रका कीर्त्तन एवं स्मरण करनेका सुयोग प्रदान किया है।

श्रील महाराजजीका हम लोगोंके प्रति अत्यधिक वात्सल्य था। मुझे देखनेसे वे सन्‍तुष्ट होते थे तथा कहते थे, “आप ब्राह्मण हैं, आपको देखनेसे मुझे आनन्‍द होता है तथा आपका नाम भी मेरे गुरुजीके नाम पर है।”

मैं कुछ समयके लिए मथुरा मठमें रहा। उन दिनोंमें श्रील महाराजजी मथुरामें तीन समय प्रवचन करते थे। उनकी वाक्‌-चातुरी मुझे अत्यधिक प्रभावित करती थी। उनकी भाषा अत्यधिक मधुर तथा कथा अमृतमयी होती थी।

एक समय यहाँ विशाखापट्टनममें रामकृष्ण हॉलमें आयोजित एक कार्यक्रममें उन्होंने हिन्‍दी भाषामें अत्यधिक सुन्दर हरिकथाका परिवेशन किया था। श्रील महाराजजीने–

‘भक्त्या विहीना अपराधलक्षैः क्षिप्ताश्च कामादि-तरङ्ग-मध्ये।
कृपामयि! त्वां शरणं प्रपन्ना वृन्दे! नमस्ते चरणारविन्दम्॥’

श्रीवृन्दादेव्यष्टकम्‌के इस श्लोककी व्याख्या की तथा वृन्दादेवीकी महिमाका गान किया। मैं उस व्याख्याको श्रवणकर आश्चर्यचकित हो गया तथा विचार करने लगा कि श्रील महाराजजीने यह श्लोक कहाँसे कहा है। हम तो

‘वृन्दायै तुलसी दैव्यै प्रियायै केशवस्य च।
कृष्णभक्ति-प्रदे देवि! सत्यवत्यै नमो नमः॥’

श्लोकका ही गान करते थे। श्रील महाराजजी प्रतिदिन सभामें हरिकथा कहते थे तथा मेरे गुरुपादपद्म–श्रील भक्तिवैभव पुरी गोस्वामी महाराज सर्वप्रथम श्रील महाराजजीको ही हरिकथा करनेके लिये कहते थे। जहाँपर भी मेरे गुरुपादपद्म मन्‍दिर प्रतिष्ठा करते, वे श्रील महाराजजीको अवश्य ही आमन्‍त्रित करते थे। श्रीजगन्नाथ पुरीमें मन्दिर प्रतिष्ठाके समय गुरुपादपद्मके निमन्त्रणपर श्रील भक्तिभूदेव श्रौती गोस्वामी महाराज, श्रील भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज तथा श्रील महाराजजीने उत्सवमें योगदान दिया। कोबूर, विशाखापट्टनम, बरहमपुर इत्यादि अन्य-अन्य मन्‍दिरोंमें श्रील महाराजजीने ही विग्रह प्रतिष्ठा की है।

श्रील महाराजजी रसिक वैष्णव थे। उनके द्वारा सम्पादित ग्रन्थोंमें जो भाव दिखलायी देता है, वह उनके सम-सामायिक किसी अन्य आचार्यके ग्रन्थोंमें नहीं है। वे श्रीश्रीराधा-कृष्णकी लीलाओंका अत्यन्‍त रसपूर्ण वर्णन करते थे, विशेष रूपसे पारकीय-भावके विषयमें बतलाते थे। अभी इस प्रकारकी कथाओंको कहनेवाला श्रेष्ठ वैष्णव कोई भी नहीं है। साथ-ही-साथ उनका प्रवचन अत्यन्‍त तात्विक भी होता था। वह श्रीमन्महाप्रभुके अनुरागी भक्त थे। महाप्रभुके विषयमें अत्यधिक उत्कृष्ट प्रवचन करते थे। श्रीचैतन्य-चरितामृतसे अधिक पाठ करते थे। एक समय श्रीगोपेश्वर महादेवके विषयमें जब चर्चा हुई, तो श्रील महाराजजीने कहा कि वह ‘गोपीश्वर महादेव’ हैं।

श्रील महाराजजी अतुलनीय प्रभावशाली थे। उनका अत्यधिक पाण्डित्य, गम्भीर व्यक्तित्व, दीर्घ तनु तथा ऊँचा कद था। प्रारम्भके दिनोंमें श्रील महाराजजीके निकट जानेमें भी हमको भय लगता था – वे हमें फौज़के अफसरकी भान्ति लगते थे। उस समय हम छोटे थे। किन्तु साथ ही वे हमें बहुत प्रीति भी करते थे। मैं उनकी प्रीतिको जीवन पर्यन्त नहीं भूल सकता। ऐसा प्रेम-प्रीति अब कौनसे गौड़ीय मठमें है?

यद्यपि उस समय मथुरा मठकी आर्थिक परिस्थिति भी अच्छी नहीं थी, तथापि प्रसादके समय बहुतसे लोगोंके बाहरसे आ जाने पर श्रील महाराजजी सभी को प्रसाद देते थे। वे कहते थे, “जाओ, मिलकर सबको प्रसाद देना।” श्रील महाराजजीका अत्यन्‍त उदार चरित्र था। उस समय मठमें धन अल्प था, किन्तु भक्तोंमें परस्पर प्रीति प्रचुर थी। श्रील महाराजजीके भाव, प्रेम, वैष्णवता, भजन-निष्ठा, वैराग्य आदि गुणोंका वर्णन करना मेरे लिए सम्भव पर नहीं है। वे महाप्रभुके प्रेम-भावमें सब समय निमग्न रहते थे। मैं श्रील महाराजजीकी आविर्भाव-शतवार्षिकीके शुभ अवसरपर उनके श्रीचरणोंमें प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझपर कृपा करें तथा जिस भाव-समुद्रमें वह सदैव निमग्न रहते थे उसकी एक बूँद मुझपर भी वर्षण करें।

वैष्णवदासानुदास

श्रीभक्तिसौध केशव
(आचार्य – श्रीकृष्णचैतन्य मिशन)
(विशाखापटनम)