Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sripad B.V. Madhav Maharaja

India, Mathura

ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीकी शतवार्षिकी-आविर्भाव-तिथिके मङ्गलमय अवसर उनके द्वारा व्रजमें गौड़ीय-विचारोंके संस्थापन सम्बन्धी कुछ संस्मरण—

मथुरा-मठका दायित्व

परमाराध्य श्रील गुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज परम गुरुदेव श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजके आदेशसे जब सन्‌ १९५४ में नवद्वीपसे मथुरा आये, उसी वर्ष जन्माष्टमी पर ही परम गुरुदेवने मथुरा मठमें श्रीविग्रहकी स्थापनाकी एवं श्रील गुरुदेवको मठरक्षकका दायित्व दिया था।

उस समय श्रील गुरुदेवने परम गुरुदेवसे पूछा था, “गुरुदेव, मुझे ऐसा लगता है कि आप मुझे अपने चरणोंकी सेवासे अलग कर रहे हैं।” परम गुरुदेवने इसके उत्तरमें कहा, “नहीं बेटा, मैं तुम्हें कैसे अलग कर सकता हूँ? वर्तमानमें गौड़ीय मठमें केवल तुम ही हिन्दी भाषी हो, इसलिये तुम्हें हिन्दी-भाषी क्षेत्रमें अधिक सेवाका दायित्व दे रहा हूँ।” तब गुरुदेवने कहा, “ठीक है गुरुदेव, जिस प्रकार भगवान् श्रीरामने अपने छोटे भाई शत्रुघ्नको मथुराका दायित्व दिया था, तब शत्रुघ्नने भगवान् श्रीरामसे वराहदेव देनेकी प्रार्थनाकी थी और भगवान् श्रीरामने उन्हें वराहदेव दे दिए थे। [मथुरामें आज जो वराहदेवके विग्रह आप देखते हैं, वह शत्रुघ्न द्वारा ही लाये गये हैं] ऐसे ही गुरुदेव मेरी एक प्रार्थना है कि आपको प्रति वर्ष एक माहके लिये मथुरा आना पड़ेगा।” परम गुरुदेव हँसते हुए बोले, “यह तो बहुत अच्छा है, इसी बहाने मेरा व्रजवास हो जाएगा।”

महामन्त्र उच्चारण का यथार्थ-क्रम

जब श्रील गुरुदेवने मथुरा मठका दायित्व सम्भाला उस समय व्रजमें अधिकतर लोग महामन्त्रका उच्चारण विपरीत क्रमसे करते थे, यथा––

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।

उन लोगोंकी यह धारणा थी कि भगवान् राम त्रेतायुगमें आये तथा भगवान् कृष्ण द्वापरयुगमें आये अर्थात्‌ भगवान् राम पहले आये, इसलिये भगवान् रामका नाम पहले उच्चारण होना चाहिये। श्रील गुरुदेवने शास्त्र युक्तियोंके द्वारा इसका खण्डन किया और बहुत परिश्रमके साथ प्रचार करके सभीको उचित क्रमसे महामन्त्र उच्चारण करना सिखाया, यथा––

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

चारों युगोंके लिए पृथक-पृथक महामन्त्र हैं।

सत्युगका महामन्त्र नारायणके नामोंसे है, यथा-

नारायण परावेदा नारायण पराक्षरा: ।
नारायण परामुक्ति: नारायण परागति:।।

त्रेतायुगका महामन्त्र है-

राम नारायण अनन्त मुकुन्द मधुसूदन।
कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुण्ठ वामन।।

श्रील गुरुदेवने बताया त्रेतायुगके इस महामन्त्रमें रामका नाम केवल एक बार आया है और नाम अन्य अवतारोंके लिये हैं। विशेषकर

1. मुकुन्द–मुक्तिं ददाति इति मुकुन्द:

2. मुक्तिसुखं कुत्सितं कृत्वा प्रेमानन्दं ददाति इति मुकुन्द:

3. मुखकमल कुन्द पुष्प इव प्रफुल्लितम्‌ इति मुकुन्द:।

'मधुसूदन' जो व्रजगोपियोंके प्रेमरूपी मधुका आस्वादन करते हैं। 'कृष्ण 'जो सबके चित्तको आकर्षित करते हैं’। ‘केशव’ गीता [श्रीविश्वनाथ चक्रवर्त्ती ठाकुरकी टीका] में वर्णन है–

यहाँ क--ब्रह्मा, ईश--शिव, व--वशीभूत करनेवाले। अर्थात जो ब्रह्मा और शिवको भी वशीभूत करनेवाले हैं, वे केशव हैं।

अथवा जो व्रजगोपियोंके विशेषरूपसे राधाजीके केशको सँवारते हैं, वे केशव हैं। ‘कंसारी’ कंसके शत्रु। ‘हरे’ जो सबके मनको हरण करनेवाले हैं।

यह सभी कृष्णके नाम हैं। श्रील गुरुदेवने कहा, “इन समस्त शास्त्रीय प्रमाणोंके होते हुए आप लोग किस आधार पर भगवान्‌ रामके नामको पहले और भगवान्‌ कृष्णके नामको बादमें उच्चारण कर रहे हो।” श्रीभागवत प्रणेता व्यासदेवजी या भागवत वक्ता शुकदेवजी कहते हैं:-

एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥
–श्रीमद्भा. (१/३/२८)

ब्रह्माजी भी कहते हैं:-

रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद्भुवनेषु किन्तु।
कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।।
–ब्रह्मसंहिता (५/३९)


यहाँ भी कृष्णको अनादि आदि बताया गया है, रामको तो नहीं। फिर किस आधार पर आप कह सकते हैं कि रामजी पहले हैं तथा कृष्ण बादमें है?

द्वापरयुगके महामन्त्रमें श्रील गुरुदेवने बताया,

"हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे।
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णो निराश्रयं मां जगदीश रक्ष"।।

इस महामन्त्रमें हरे, मुरारे, मधुकैटभारे, गोपाल, गोविन्द, मुकुन्द आदि सभी कृष्णके ही नाम है। कुछेक विष्णुके नाम होने पर भी राम नामका उल्लेख नहीं है।

इस प्रकार श्रील गुरुदेवने शास्त्रोंमें जो वर्णन है, उसीका स्थापन किया।

श्रील गुरुदेवकी कृपासे व्रजमें अब अधिकांश लोग सर्वत्र, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। इस क्रमसे ही उच्चाराण करते हैं।

कृष्णका गोकुलमें जन्म और मथुरामें प्राकट्य

व्रजमें सभी लोगोंकी यह धारणा थी कि कृष्ण वसुदेव तथा देवकीके पुत्र हैं और नन्द-यशोदाने उनका पालन पोषण किया है। श्रील गुरुदेवने शास्त्रीय युक्तियोंके द्वारा प्रमाणित किया कि कृष्ण नन्द-यशोदाके ही पुत्र हैं, जैसा कि भागवतमें कहा गया है-

नन्दस्त्वातज उत्पन्ने जातालादो महामनाः।
आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नातः शुचिरलंकृतः ।।

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै।
कारयामास विधिवत् पितृदेवार्चनं तथा ।।
–श्रीमद्भा (१०/५/१–२)

[परीक्षित्‌! नन्दबाबा बड़े मनस्वी और उदार थे। पुत्रका जन्म होने पर तो उनका हृदय विलक्षण आनन्दसे भर गया। उन्होंने स्नान किया और पवित्र होकर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण धारण किये। फिर वेदज्ञ ब्राह्मणोंको बुलवाकर स्वस्तिवाचन और अपने पुत्रका जातकर्म-संस्कार करवाया। साथ ही देवता और पितरों की विधिपूर्वक पूजा भी करवायी।]

जब तक संतानका गर्भसे जन्म न हो, तब तक नाड़ी-छेदन नहीं होता। मथुरा प्रसङ्गमें कहीं भी कृष्णके नाड़ी-छेदनका वर्णन नहीं है। वसुदेव देवकीके समक्ष कृष्ण सोलह वर्षके किशोर जैसे प्रकट हुये और बोले “तुमने पहले पृश्नि-सुतपाके रूपमें तपस्याकी थी और वर माँगा था कि, ‘आपके जैसा पुत्र हो’। मेरे समान ही और कोई नहीं है, फिर मुझसे बढ़कर तो बात ही क्या? इसलिये मुझे ही आना पड़ा। अब तुम लोग वर माँगो।”

न तत् समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते।
–(श्वेताश्वतर ६/८)

वसुदेव देवकीकी ओर देखने लगे। “आप छोटे बच्चे बन जाएँ। हम कंससे आपकी रक्षा करेंगे।” तब कृष्णने कहा, “मैं छोटा बनता हूँ, मुझे गोकुलमें रखकर आओ। तब वसुदेव महाराज कृष्णको गोकुल ले गये, उस समय समस्त गोकुलवासी तथा मथुरावासी सो रहे थे । वसुदेव महाराजने यशोदा मैयाके प्रसूति गृहमें प्रवेश किया। माँ यशोदा प्रोढ़ा आयुकी होनेके कारण प्रसव पीड़ासे बेहोश हो गई थीं। उनको यह तो पता था कि संतान हुई है, लेकिन यह नहीं कि पुत्र हुआ या पुत्री, एक हुए या दो। वसुदेव महाराजने अपने पुत्रको यशोदा माताकी शय्यापर रखा। तब नन्द-नन्दन कृष्णने वसुदेव-नन्दनको अपने भीतर आत्मसात कर दिया। जिस प्रकार एक अधिक शक्तिशाली चुम्बक कम शक्तिकी चुम्बकको अपनी ओर खींचकर अपने साथ मिला लेती है, उसी प्रकार नन्दनन्दन भगवान् ने वसुदेवनन्दन भगवान्‌को अपने भीतर आत्मसात कर लिया। योगमायाके प्रभावसे वसुदेव महाराजको यह सब पता नहीं चला। फिर वे पुत्री को मथुरा ले आये। इस प्रकार श्रील गुरुदेव समस्त व्रजवासियोंको, पण्डोंको यह सब विचार बताते।

जब रासमें कृष्ण अन्तर्ध्यान हो गये थे, तब गोपियोंने कहा–

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥
–श्रीमद्भा (१०/३१/१)

हे प्यारे! व्रजमें तुम्हारे जन्मके कारण वैकुण्ठ आदि लोकोंसे भी व्रजकी महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलताकी देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु हे प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणोंमे ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वनमें भटककर तुम्हें ढुँढ़ रही हैं।

इस प्रकार बहुतसे श्लोकों एवं बहुत-सी युक्तियोंके द्वारा श्रील गुरुदेवने यह स्थापित किया कि कृष्ण नन्दन-नन्दन हैं।

ब्रह्म-विमोहन लीलाका रहस्य

ब्रह्माजी हमारे सम्प्रदायके प्रवर्तक हैं। बहुतसे लोगों या टीकाकारोंका कहना है कि कृष्णके गो और सखाओंको चुरानेमें ब्रह्माजीका दोष है। श्रील गुरुदेवने बताया इसमें ब्रह्माजीका दोष नहीं है। यदि हमारे आदि गुरुमें ही दोष होगा, तब तो हम सब भी दोषी होंगे और हमारी सिद्धि कभी सम्भव नहीं होगी है। ऐसेमें श्रीमन्महाप्रभु जो स्वयं कृष्ण हैं, हमें कदापि अङ्गीकार नहीं करेंगे। तो फिर ब्रह्माजीने ऐसा क्यों किया?

जब प्रात: कृष्णको जगानेके लिये माँ यशोदा, रोहिणी मैया, कुन्दलता, धनिष्ठा, राधाजीकी नानी मुखरा आती हैं, माँ यशोदा कृष्णको जगाती हैं–उठो लाला आँखे खोलो, जल लायी मुँह धो लो। माँ यशोदाके नेत्रोंसे आँसू तथा स्तनके दूधसे कृष्णका अभिषेक होने लगाता है। इतनेमें गौशालासे एक व्यक्तिने आकर बताता है कि आज तो गौशालामें कोई भी गाय दूध नहीं दे रही है, नन्दनन्दनके भवनकी ओर देखकर हम्भा-हम्भा कर रही हैं। जब तक कृष्ण नहीं जायेंगे गाय दूध नहीं देंगी।” कृष्णके जाते ही गोमाताओंने दूध देना आरम्भ कर दिया। गोमाताएँ सोचने लगी, अहो! यदि कृष्ण हमारा बछड़ा होता तो अपने मुखसे हमारा स्तनपान करता। कृष्णने मन-ही-मन कहा, ‘एवमस्तु’!

जितनी भी छोटी-छोटी गोपियाँ थी, उन्होंने कात्यायनी व्रत किया-

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम: ।
इति मन्त्रं जपन्त्यस्ता: पूजां चक्रु: कुमारिका: ॥
–श्रीमद्भा. (१०/२२/४ )

उस समय गोपियाँ ढाई वर्षकी थीं। नित्यसिद्धा गोपियोंने नहीं अपितु दण्डकारण्यके ऋषिलोग, स्वर्ण सीताएँ, जनकपुरीकी राजकन्या आदिने कात्यायनी व्रत किया। तब कृष्णने उन सबको वर दिया कि तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी।

और भी, जब कृष्ण गोचारणसे लौटते हैं, माँ यशोदाकी जितनी सखियाँ हैं वे सभी एकके बाद एक पहले कृष्णको गोदीमें लेती हैं, उन्हें सहलाती, चुमती हैं, फिर यशोदा मैयाको देती हैं। सभी सोचती हैं, अहो! यशोदा कितनी बड़भागिनी है। अन्तमें तो वह कृष्णको ले जाती है। अपनी गोदमें लेकर स्तनपान कराती है। काश! कृष्ण हमारा पुत्र होता। कृष्णने मन-ही-मन कहा ‘एवमस्तु’।

भगवान् एक कार्यके द्वारा पाँच-सात कार्य कर लेते हैं। कृष्णने इच्छाकी कि मैं व्रजकी मैयाओंका पुत्र, गो माताओंका बछड़ा तथा व्रजगोपियोंका पति बनुँ, उनकी इन सभी इच्छाओंको योगमायाने पूरा कर दिया। इसलिये योगमायाने ब्रह्माजीको सखा और बछड़े चुरानेके लिये प्रेरित किया। जब ब्रह्माजीने सखा और बछड़े चुरा लिये तब अपने सखाओं और बछड़ों को न देखकर कृष्णका मुख सूख-सा गया। वे सोचने लगे “मेरे सखा कहाँ हैं? मेरे बछड़े कहाँ है? मैं क्या करूँ?” व्रजमें कृष्णमें मुग्धता और सर्वज्ञता दोनों एक साथ विद्यमान रहती हैं। सब कुछ जानते भी हैं और कुछ भी नहीं जानते। योगमायाने ही उन्हें सबकुछ स्मरण करवाया। तब कृष्ण स्वयं ही बछड़े तथा सखा बने। बछड़े बनकर गायोंका दूध पीने लगे अब और गाय कृष्णके लिये रम्भाती नहीं। व्रजकी मैयाओंके पुत्र बने। उस समय गर्गाचार्यने घोषित किया कि “यह बहुत ही शुभ समय है। सब लोग अपने-अपने पुत्र-पुत्रियोंका विवाह करा दो।” इस प्रकार कृष्ण व्रज-गोपियोंके प्राण पति, मैयाओंके पुत्र तथा गऊओंके बछड़े बने। इस प्रकार ब्रह्माजी ने हरण-लीलाके द्वारा बहुत बड़ी सेवाकी जो कि कल्पनातीत है।

श्रील गुरुदेव कहा करते थे कि बहुतसे लोग कहते हैं––इन्द्रने बहुत सेवाकी है, क्योंकि उसके कारण सभी रसोंके व्रजवासी गोवर्धनके नीचे एकत्रित हो गये। किन्तु ब्रह्माजी इन्द्रके पितामह हैं, ब्रह्माजीने तो इन्द्रसे भी सुन्दर सेवा की है! यह सब विचार श्रील गुरुदेवने बतलाये। यही आचार्य वैशिष्‍ट्य है।

जीवका स्वरूप निर्णय

श्रील गुरुदेव बताते हैं कि बहुतसे लोग कहते हैं कि जीवोंका जो स्वरूप है वह सङ्गके प्रभावसे परिवर्तित होता है। लेकिन महाप्रभुने कहा है कि जीवका स्वरूप है नित्य कृष्णदास। जीवका स्वरूप भी नित्य है, उनका कृष्णदास्य भी नित्य है। यह कभी परिवर्तित नहीं होता। सङ्गसे प्रकाशित होगा परिवर्तित नहीं।”

जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्यदास ।
कृष्णेर तटस्था शक्ति भेदाभेद-प्रकाश।।
–चै॰ च॰ म॰ (२०/१०८, ११७ )

जगत्‌के लिए श्रील गुरुदेवका अवदान वैशिष्‍ट्य

भगवान्‌ने अपने विभिन्न परिकरोंके द्वारा बहुत कुछ कार्य करवाये। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामीने लिखा है :-

‘भक्ति’, ‘प्रेम’, ’तत्त्व’ कहे राय करि’ ‘वक्ता’
आपनी प्रद्युम्नमिश्र-सह हय ‘श्रोता’

हरिदास-द्वारा नाम-माहात्म्य-प्रकाश
सनातन-द्वारा भक्ति-सिद्धान्त-विलास

श्रीरूप-द्वारा व्रजेर प्रेम-रास-लीला
के बुझिते पारे गम्भीर चैतन्येर खेला
–चै: च: अन्त्य (५/८५–८७)

श्रीमन्महाप्रभुने भक्तितत्व, प्रेमतत्व और सभी तत्वोंके वर्णनमें रायरामानन्दको वक्ता बनाया और स्वयं श्रोता बनकर बादमें प्रद्युम्न मिश्रको भी श्रोता बनाया। नामाचार्य हरिदास ठाकुरके द्वारा नाम महात्म्यको प्रकाशित किया। श्रील सनातन गोस्वामी द्वारा भक्तिसिद्धान्तका विलास करवाया और श्रील रूप गोस्वामी द्वारा व्रजकी रसपूर्ण प्रेमलीलाका प्रकाश करवाया। जगत्‌में ऐसा कौन है, जो महाप्रभुके भावोंको समझ सकता है। महाप्रभुकी लीला अमृतका सिन्धु है।

श्रील नारायण गोस्वामी महाराजने क्या किया-

राधादास्य भाव हमारे भजनका लक्ष्य है। यह भाव देकर जगत्‌को तार दिया।

श्रील गुरुदेव कहते थे-“लोग कहते हैं हम लोग वैधी-भक्ति करते हैं। नारायण महाराजजी क्यों सब समय रूपानुग-रागानुग विचार बोलते हैं। आप लोग यदि वैधी-भक्ति प्रचार करें, हमें कोई भी आपत्ति नहीं। आप लोगोंको प्रणाम है। मुझे महाप्रभु रूपानुग भक्तिके प्रचारके लिये ही जगत्‌में लाये हैं। मैं विशेष रूपमें इसीका प्रचार करूँगा।”

नारायण द्वारा राधादास्य प्रकाश
एइरूपे महाप्रभु करेन विलास

साधकके लिये सर्वोत्तम प्राप्य केवल राधादास्य भाव तक है, उससे परे नहीं। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामीने कहा है–

पादाब्जयोत्सव बिना वर-दास्यमेव,
नान्यत् कदापि समये किल देवि याचे।
सख्याय ते मम नमोऽस्तु नमोऽस्तु नित्यं,
दास्याय ते मम रसोऽस्तु रसोऽस्तु सत्यम्
–(विलाप कुसुमाञ्ली-१६)

हे गुरुदेव! आपके आविर्भाव-शतवार्षिक महोत्सवमें मैं आपके श्रीचरणोंमें निवेदन करता हूँ, कि आप जिस राधादास्य भावको जगत्‌में देने आये थे, मैं जानता हूँ कि मैं सब प्रकारसे आयोग्य हूँ, मुझमें किञ्चित्‌ भी योग्यता नहीं है, आपकी कृपा ही मेरा एकमात्र सम्बल है। अतएव कृपा करके मुझे इस भावकी एक बूँद प्रदान कीजिये ताकि आपके आनुगत्यमें रूपगोस्वामी, रूप मञ्जरीकी अध्यक्षतामें नित्यकाल महाप्रभुके दास्यरसमें तथा युगल-किशोरके राधा-स्नेह भावमें स्थित रहकर जैसे आपने सेवाकी उस प्रकारसे ही सेवा कर सकूँ। यही आपके श्रीचरणोंमें विनीत प्रार्थना है।

तवानुगत्ये रूप गोस्वामीर अध्यक्षताय
ललितार गणे सेवि युगले सदाय

त्रिदण्डि-स्वामी

श्रीभक्तिवेदान्त माधव