Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sri Basant Shastri Chaturvedi

India, Mathura

श्रीश्रीभक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीके जन्म-शताब्दी-महोत्सवके उपलक्ष्यमें प्रदत्त भावाञ्जलि-

'पूज्य महाराजश्री-मेरी स्मृति में’
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शास्त्रका वचन है, कि-

जयन्ति ते सुकृतिनो, रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशःकाये, जरामरणजं भयम् ।।

अर्थात् जिनका श्रेष्ठ कृतित्व होता है, ऐसे महानुभावोंके 'यश-शरीर'को वृद्धावस्था एवं मृत्युका भय नहीं होता।

परम-आदरणीय परमपूज्य श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजी ऐसे ही सत्पुरुष महानुभावोंमें-से एक थे। मथुराके श्रीकेशवजी गौड़ीय मठमें मुझे अपने विद्यार्थी-जीवनमें उनके प्रथम दर्शन प्राप्त हुए। धीरे-धीरे उनकी निकटता प्राप्त हुई और उस निकटतासे अनुभव हुआ कि-वे परम्परागत विद्वान्, परम-भक्त, परम-रसिक एवं वैष्णव-सिद्धान्तके महान् ज्ञाता थे। उनके द्वारा श्रीमद्भागवत और अन्य-विषयोंपर अनेक प्रकारकी गोष्ठियाँ आयोजित हुईं, जिनमें मुझे भी भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ।

'कैवल्यैक-प्रयोजनम्' भागवतके इस विषयपर पूज्य महाराजश्री ने गोवर्धनमें एक गोष्ठी आयोजित की थी। मथुराके अनेक विद्वानोंको उस गोष्ठीमें आमन्त्रित किया गया था। मैं भी उस गोष्ठीमें था और सभाका सञ्चालन कर रहा था। 'कैवल्यैक-प्रयोजनम्' पर प्रायः विद्वानोंका मत 'कैवल्य' अर्थात् मुक्तिके अर्थमें ही था। कई विद्वानोंका यह अभिप्राय था कि-श्रीमद्भागवतका प्रयोजन, कैवल्य और एकमात्र कैवल्य अर्थात् मुक्ति ही है। यह अर्थ वैष्णव-परम्पराके अनुकूल नहीं होनेके कारण महाराजश्री को उचित नहीं लगता था। इसलिए महाराजश्री ने इस गोष्ठीका आयोजन किया और 'कैवल्यैक-प्रयोजनम्' में वैष्णव-परम्पराके अनुसार 'केवलो नाम भगवान्, केवलस्य भावः कैवल्यम्', अर्थात् भगवान् की भक्ति ही एकमात्र प्रयोजन है, यह सिद्ध किया गया। वैसे भी श्रीमद्भागवतमें यह वचन है, कि-

*'अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं सर्वात्मा भगवान् हरिः।'*
अर्थात् श्रीमद्भागवतमें सर्वत्र विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिका ही वर्णन किया गया है ।

श्रीमद्भागवतके द्वितीय स्कन्ध(२/७/५२) में भी-

यथा हरौ भगवति, नृणां भक्तिर्भविष्यति ।
सर्वात्मन्यखिलाधारे, इति संकल्प्य वर्णय ।।

श्रीमद्भागवत 'भक्तिशास्त्र' है। इसलिए श्रीमहाराजजी का कथन था कि-वैष्णव-परम्पराके अनुसार 'कैवल्यैक-प्रयोजनम्' का तात्पर्य एकमात्र श्रीकृष्णकी भक्ति ही है। इस सम्पूर्ण श्लोकमें 'ब्रहमात्मैकत्व-बोधनम्' का अर्थ बहुत सुन्दर रूपसे बताया गया है कि-ब्रह्म और आत्मा–इनके ऐक्य का 'बोध' हो जाये। मोक्ष-परक अर्थ तो यही है कि-ब्रह्म और आत्मा एक हो जाएँ, यही कैवल्य है, किन्तु श्रीमहाराजजी को यह अर्थ उचित नहीं लगा। उस सभामें मैंनें बड़ी विनम्रता पूर्वक 'ब्रहमात्मैकत्व-बोधनम्' का वैष्णव-परम्पराके अनुसार अर्थ किया। जिसमें 'ब्रह्म' शब्दका अर्थ श्रीकृष्ण है और 'आत्म' शब्दका अर्थ श्रीराधिका है।

'सच्चिदानंद-कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका'

श्रीकृष्णकी आत्माको ही राधा कहा गया है, तो ब्रह्मात्म अर्थात् श्रीराधाकृष्णका जो एकत्व है, जो रास है, जो प्रभुकी रास-रमणकी लीला है, वही इसका एकमात्र-प्रयोजन है। उस रसकी प्राप्ति, उस रसका वर्णन, यही इसका एकमात्र प्रयोजन है। यह अर्थ उस सभामें दासके (मेरे) द्वारा वर्णन किया गया। पूज्य महाराजजी इस अर्थके द्वारा बहुत ही प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुए।

महाराजश्रीके व्यक्तित्वमें और उनके संस्कारोंमें अनन्य-वैष्णवता कूट-कूटकर समाहित थी।

श्रीमधुपुरी (मथुरा)में एक ऐसी भी सभा हुई कि--जिस सभामें भगवान् श्रीकृष्णके जन्मके विषयमें चर्चा हुई थी। श्रीगतश्रम-नारायण मन्दिरमें यह सभा हुई थी। उस सभामें हमारे पूज्य शिक्षागुरु गोलोकवासी श्रीमनहर लाल शास्त्रीजी ने अपने भाषणमें यह घोषणा की थी कि-लोक, वेदमें प्रसिद्ध जो भगवान् वासुदेवका प्राकट्य है, वह श्रीमथुरामें हुआ, लेकिन व्रज-भक्तोंके उपास्य परब्रह्म भगवान् नन्दनन्दन, व्रजेन्द्रनन्दन, रसिकशेखर श्रीकृष्णका दो-भुजासे जन्म श्रीगोकुलमें भी हुआ था। यद्यपि मथुराके लोगोंने इसका कुछ विरोध भी किया, किन्तु वैष्णव-परम्पराके इस अर्थको स्वीकार करते हुए पूज्यपाद श्रीभक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीने इस अर्थका बड़ी ही दृढ़तासे समर्थन किया। उन्होंने कहा कि-मथुरामें चतुर्भुज-भगवान् वासुदेवका प्राकट्य हुआ है, लेकिन रसिक-शिरोमणि, वैष्णव-परम्परामें उपास्य, भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णका जन्म गोकुल-व्रजमें ही हुआ है। यही वैष्णव-परम्पराके अनुसार श्रीमद्भागवतका प्रसिद्ध अर्थ है।

ऐसे परमपूज्य श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजी की अनेक स्मृतियाँ और संस्मरण मेरे जीवनमें और मेरी स्मृतिमें आज भी विद्यमान हैं। महाराजजी एक दिव्य-महापुरुष थे। साधारण वेशमें रहते थे, नाम-संकीर्तनमें और भगवान् श्रीप्रिया-प्रियतमकी रसोपासनामें उनकी अत्यन्त-आस्था थी। ऐसे पूज्यपाद श्रीमहाराजजीके चरणोंमें मैं सादर दण्डवत्-प्रणाम करते हुए अपनी लेखनीको यहाँ विराम देता हूँ।

साधुवाद, जय जय श्रीराधे ।

-श्रीबसन्तशास्त्री चतुर्वेदी

(श्रीमद्विष्णुस्वामि-मतानुवर्ति-श्रीमद्वल्लभाचार्यमतानुयायि)