Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sri Achyuta Lal Bhatta

India, Vrindavan

आविर्भाव–शतवार्षिकी–अभिनन्दन

श्रीश्रीभक्तिवेदान्त नारायण महाराज वास्तवमें ही एक सच्चे आचार्य थे। सच्चा आचार्य उसको कहते हैं, जो स्वयं शास्त्रोंके अर्थको ग्रहण करे, ग्रन्थ चुने, स्वयं आचरण करे एवं दूसरोंसे आचरण करवाये।

आचिनोति यः शास्त्रार्थमाचारे स्थापयत्यपि।
स्वयमाचरते यस्मादाचार्यस्तेन कीर्त्तितः॥
–(वायुपुराण)

अर्थात् वे वास्तवमें आचार्य रहे हैं जिन्होंने शास्त्रोंके तात्पर्य एवं मूल तत्त्वोंको ग्रहण किया है, स्वयं आचरण करते हुए एवं दूसरोंको भी उसका उपदेश करते हुए विराजमान हैं।

कोई भी तत्त्व नया तो है नहीं, शास्त्रोंमें उन सबका वर्णन है। परन्तु शास्त्रोंके उस जङ्गलसे निकाल करके किसी तत्त्वको एक गुलदस्तेके रूपमें प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ा कौशल है, जो सबके सामर्थ्यकी बात नहीं है। श्रील नारायण महाराज प्रायः वर्षमें दो बार विशेषरूपसे विद्वत् सभाओंका आयोजन करते थे। अन्य अवसरों पर भी हरिकथाका आयोजन करते थे। उन विद्वत् सभाओंमें स्थानीय एवं अपने–अपने क्षेत्रके जो व्यक्तित्व हैं, हस्ताक्षर हैं, उनको ही विशेषरूपसे आमन्त्रित करते थे। एक विशिष्ट विषय देकर उसके ऊपर गम्भीरतासे निर्णायक कोई विचार प्रस्तुत करना उनकी बड़ी विशेषता थी। अन्यथा विद्वत् सभाएँ तो बहुत होती हैं, परन्तु उनमें केवल व्यक्तिकी महिमाका या संस्थाकी महिमाका गान मात्र होकर रह जाता है। उनमें कुछ निर्णायक विचार ही नहीं निकल पाता। परन्तु श्रील महाराजजी द्वारा अनेक–अनेक बार श्रीमद्भागवतके तात्पर्य पर चर्चा होती रहती थी। जैसे एक बार उन्होंने गोवर्धनमें एक सभाका आयोजन किया था। उसका विषय रखा था—‘कैवल्यैक प्रयोजनम्’। उसके ऊपर निर्णायक सारभूत एक विचार सामने आया था। मैं भी उसमें सम्मिलित था। श्रील महाराजजी द्वारा श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य, श्रीमती राधारानी, श्रीमन्महाप्रभु, श्रीरूप गोस्वामी आदि विषयों पर अनेक अवसरोंपर सभाएँ होती थीं। वे जब तक विराजमान रहे, श्रीरूप–सनातन गौड़ीय मठ, वृन्दावनमें प्रत्येक वर्ष आते रहे तथा सार्थक संवाद और सार्थक तत्त्वोंका स्थापन करते रहे। यह उनकी एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही, केवल ऊपरी–ऊपरी बातोंको लेकर नहीं, बल्कि आर्ष (ऋषियों)के ग्रन्थोंके उदाहरण सहित, समस्त प्रमाणों सहित किसी विषयवस्तुको स्थापित करना उनका लक्ष्य होता था। श्रीमन्महाप्रभुने जैसे कहा था ‘सर्वत्र प्रमाण वचन’, इस विचारको उन्होंने बहुत आग्रहपूर्वक अपनाया था। वे जब श्रील रूप गोस्वामीके विषयमें बोलते थे, तो श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु एवं श्रीउज्ज्वलनीलमणिसे परिभाषाओंको सदैव स्थापित करते हुए उनके आधार पर ही बोलते थे। मुझे स्मरण है—एक बार श्रीमन्महाप्रभुके विशिष्ट अवदानके ऊपर श्रीरूप–सनातन गौड़ीय मठमें मैंने यह स्थापन करनेका प्रयत्न किया कि सीधे श्रीकृष्णकी ‘रागानुगा उपासना’ करनेकी अपेक्षा श्रीमन्महाप्रभुके आनुगत्यमें श्रीराधाकृष्णकी रागानुगा उपासना अधिक महत्त्वपूर्ण होगी। उन्होंने इस विचारका पूर्ण समर्थन करके अत्यन्त आनन्दित होते हुए विशेषरूपसे कहा था कि, “ऐसी सभाओंमें नए–नए विचार सुननेको मिलते हैं, इसी उद्देश्यसे मैं प्रतिवर्ष इन सभाओंको करवाता हूँ”—कितनी भावपूर्ण बात है यह!

श्रील महाराजकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह रही है कि उन्होंने किसी विचारको केवल बाह्य तौर पर प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि उसका अनुभव भी किया एवं प्रचार भी किया। यह उनका एक बहुत बड़ा योगदान था जो कि एक आचार्यके रूपमें सङ्गत था। यदि कोई ज्ञान, उपासना, व्यवहार और प्रस्तुतिकरण—इन चारों ही दृष्टियोंसे किसी विषयका सहज और बोधगम्य रूपमें पुनः प्रस्तुतिकरण कर दे तो पूरा समाज उसका स्वस्तिवाचन करता है—उसकी महिमाका गान करता है। श्रील महाराजजीमें यही विशेषता रही कि उन्होंने विचारके क्षेत्रको भी अपनाया, उपासनाके क्षेत्रको भी अपनाया और उनका प्रस्तुतिकरण तो अत्यन्त–अत्यन्त सबल था ही। उसके साथ–साथ समाजके वर्तमान परिवेशके अनुरूप उन वस्तुओं एवं मूल्योंका जो उपयोग हो सकता है, उस उपयोगको भी उन्होंने प्रस्तुत किया। श्रीमन्महाप्रभुका जो एक अपूर्व अवदान रहा है, उस अवदानको उन्होंने समाजके वर्तमान परिप्रेक्ष (परिस्थिति)के साथमें कुशलतापूर्वक संयोजित करके उसकी सम–सामयिकताको बनाये रखनेका बहुत बड़ा प्रयास किया। इसके लिए समाज उनका सदा–सदा कृतज्ञ रहेगा और उनका स्वस्तिवाचन करेगा। यह उनके आचार्य–व्यक्तित्वकी एक बहुत बड़ी विशेषता रही है।

उनके व्यक्तित्वकी और एक विशेषता मुझे आकर्षक लगती है। कुछ कथाओंको बड़ी गूढ़ कथा कहकर, हमारा अधिकार नहीं है—कहकर छोड़ दिया जाता है। हम उसके अधिकारी नहीं हैं, इसे सुननेसे कहीं अपराध हो जाएगा—ऐसा भय उत्पन्न कर उन्हें वर्जित कर दिया जाता है। कहा जाता है कि इन विषयों पर चर्चा मत करो, एक निर्दिष्ट सीमा तक जाओ, इसके बाद आगे चलनेका तुम्हें अधिकार नहीं है। श्रील महाराजजीने इस भयको दूर करनेका बहुत प्रयास किया है। ये जो सीमाएँ स्थापित की गयी थीं, यदि किसीमें कहीं योग्यता है, तो उन सीमाओंके आगे उसकी गतिको हम रोक नहीं सकते हैं। जहाँ गति रुक जाएगी, वहाँ जीवन रुक जाएगा। इसलिए उपासनाके क्षेत्रमें भी जो गति है, उसको रोकना सङ्गत नहीं है। यद्यपि कहीं–कहीं अनधिकारियोंके लिए उसे रोकनेका प्रयास किया गया है कि बस हरिनाम संकीर्तन करो, सोलह मालाके जप तक अपने आपको सीमित रखो और गूढ़ निकुञ्जकी बात या स्वरूपकी बात कभी मत करो। श्रील महाराजजीने इन वर्जनाओंसे हटकर सम्प्रदाय–भजन–पद्धतिके वैशिष्ट्यके संरक्षण हेतु कुछ ऐसे ग्रन्थोंको भी चुना एवं उनका अनुवाद भी प्रस्तुत किया, जो अत्यन्त–अत्यन्त गूढ़ हैं। ‘चमत्कारचन्द्रिका’ जैसे अत्यन्त गूढ़ ग्रन्थका उन्होंने प्रस्तुतिकरण किया। ‘श्रीगीतगोविन्द’ जैसे अत्यन्त गूढ़ ग्रन्थ जो वास्तवमें उपासनाकी पराकाष्ठा है, उस ग्रन्थको भी उन्होंने बहुत सुन्दररूपमें प्रस्तुत किया। श्रीउज्ज्वलनीलमणि एवं भक्तिरसामृतसिन्धु जैसे ग्रन्थोंका अनुवाद और उनका एक सुबोध और परम सुन्दर संस्करणके रूपमें प्रकाशन किया। उसके लिए विद्वत् समुदाय उनका ऋणी रहेगा। शिक्षा और ज्ञानके साथ जुड़ा हुआ जो बुद्धिजीवी अध्येताओंका पक्ष है, वह समुदाय उनका सदा आभारी रहेगा।

इसके अतिरिक्त श्रीमहाराजजीके श्रोतागण भी इतने प्रबुद्ध हैं कि वे इन सूक्ष्म विचारोंको समझते हैं। जगत्‌में धन और प्रचारके बलपर भीड़को इक्ट्ठा करना तो सम्भव है, कुछ अद्भुत चमत्कारोंके आधार पर सहजमें ही बहुत बड़ी भीड़ खड़ी की जा सकती है, परन्तु वैचारिक स्तरके द्वारा किसीको एक उचित शास्त्रीय धारामें प्रेषित करना, एक दिशा प्रदान करना और एक लक्ष्य तक पहुँचानेका कार्य करना तथा उपासनाके लम्बे मार्गको सुखद बनाते हुए उपासनाके क्षेत्रमें आनेवाली विभिन्न बाधाओंको दूर करनेमें सहायक होकर किसीके मार्गको प्रशस्त कर देना अत्यन्त–अत्यन्त कठिन होता है। इस विषयमें श्रील महाराजजीकी यह एक बहुत बड़ी विशेषता रही कि साधकोंकी उपासनाके क्षेत्रमें, साधनाके क्षेत्रमें जो बाधाएँ आयीं, उन समस्याओंका भी उन्होंने प्रभावी समाधान किया।

स्थानीय और विद्वत् समुदायको एकत्रित करके यदि कहीं मत–विभिन्नता भी पायी गयी, तो उन्होंने उन विभिन्न मतोंके साथ जितना वैचारिक सामञ्जस्य हो सकता है, उतना किया। परन्तु यदि सिद्धान्तसे ही कहीं विरोध हुआ, तो ऐसी स्थितिमें उन्होंने कहीं भी बचकर निकलनेकी कोशिश नहीं की, न ही विवादके कारण कहीं कोई बुरा मान जाएगा—इस बातसे भयभीत होकर उन्होंने समझौता करनेकी चेष्टा की। जो यथार्थ विषय वस्तु है, उसे ही सदा प्रस्तुत किया। यदि प्रसङ्गवशतः कहीं कुछ ऐतिहासिक तथ्य आते और यदि कोई उन ऐतिहासिक तथ्योंको तोड़–मरोड़ कर वर्णन कर रहा होता, तो उन्होंने ऐसा नहीं करने दिया और इसके लिए उन्होंने साहस दिखाया। ऐसे साहसका एक छोटा सा दृष्टान्त है उनका ‘प्रबन्ध पञ्चक’ ग्रन्थ, जिसमें जो विवादास्पद विषय थे, उन विवादास्पद विषयों पर भी उन्होंने बड़े साहसके साथ और स्पष्ट दृष्टिकोणको रखते हुए अपनी स्थापनाएँ रखीं। सम्भव है उसमें भी कुछ विवाद हों, कुछ सुधारकी सम्भावना भी हो, परन्तु उन विवादास्पद विषयों पर भी कोई बुरा मान जाएगा, इस भयसे उन्होंने उनसे बचकर निकलनेकी चेष्टा नहीं की। यह बल उसीमें होगा, जिसने शास्त्रोंके निर्णायक अर्थोंको भलीभाँति हृदयङ्गम किया हो। यदि कोई व्यक्ति ऊपर–ऊपर केवल व्यवहार मात्रमें ही अटककर रह गया है, तो वह ऐसा नहीं कर पाएगा। यह श्रीमहाराजजी की एक बहुत बड़ी विशेषता रही है।

श्रीमहाराजजीके साथ केवल भीड़ या भावुक लोगोंका एक समुदाय जुड़ा हो, ऐसा नहीं है। उनके साथ बहुत शिक्षित, पढ़ा–लिखा और तार्किक क्षमता रखनेवाला एक समुदाय जुड़ा रहा। केवल किसी व्यक्तिके आभा–मण्डलको देखकर कोई जुड़ा हो सो बात नहीं है, औरोंकी देखा–देखी कोई जुड़ गया हो, ऐसी बात भी नहीं है, बल्कि उनमें वस्तुके विचार और विश्लेषणकी जो गहरायी थी, उस गहरायीके साथ वस्तुको प्रस्तुतिकरणकी विशेषताने एक बहुत बड़े समुदायको उनके साथमें जोड़ा।

इस युगके लिए श्रील नारायण महाराज एक ‘युगपुरुष’ रहे हैं। वे दिशानिर्देश करनेवाले एक ज्योति–स्तम्भ रहे हैं। श्रीमन्महाप्रभुका जो अपूर्व अवदान है, उसको जिस गहरायीके साथ उन्होंने प्रस्तुत किया वह अद्भुत है। मैं तो तटस्थ होनेके कारण एक स्थितिमें यहाँ तक कह सकता हूँ कि श्रीनारायण महाराजका जो परिकर रहा हो, उनकी एक बड़ी विशेषता यह है कि केवल भावुकताके कारण वे उनके साथ नहीं जुड़े हैं, बल्कि वैचारिक स्वीकृति और उपासनिक प्रकाश—इन दोनोंको प्राप्त करनेके लिए ही जुडे़ हैं। संख्याके कारण कोई व्यक्ति महान् हो जाता है, ऐसा नहीं माना जा सकता। तत्त्वका जो मूल्य है, उसके कारण ही किसीकी वास्तविक महानताको देखा जाना चाहिए। हीरेके ग्राहक तो कम ही होते हैं, बथुआ तो हर जगह बिक जाता है। माना भीड़ इकट्ठी करनेवाले बहुतसे लोग हैं, परन्तु श्रील नारायण महाराजने ऐसे लोगोंको दिशानिर्देश दिये जो स्वयं साधन करना चाहते थे, जिनके पास बौधिक पृष्ठभूमि भी है और विचार करनेकी दृष्टि भी है। इसीलिए पूरा जगत् आज उनका अभिनन्दन कर रहा है।

— डॉ. गोस्वामी श्रीअच्युतलाल भट्ट (वृन्दावन)

[पी.एच.डी., श्रीभागवत भूषण, श्रीरघुनाथ भट्ट गोस्वामीकी
आचार्य परम्परामें स्नात श्रीगदाधरभट्ट गोस्वामीके वंशज,

श्रीमद्भागवतके परम्परा–सिद्ध व्याख्याता तथा श्रीश्रीभागवत–पत्रिकाके
सम्पादक संघके सदस्य।]