Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sri Om Prakash Brajavasi

India, Jaipur

आविर्भाव शतवार्षिकी—प्रणति पुष्पाञ्जलि

नमः ॐ विष्णुपादाय आचार्य सिंह रूपिणे।
श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव इति नामिने॥

नमः ॐ विष्णुपादाय गौर प्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी इति नामिने॥

मेरे ज्येष्ठ गुरुभ्राता एवं शिक्षागुरु श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजके आविर्भाव–शतवार्षिकी–महोत्सव पर उनके श्रीचरणकमलोंमें दण्डवत् प्रणतिपूर्वक उनकी कृपाकी याचना करता हूँ। आज उनके अप्राकृत चरित्र एवं गुण–महिमाके कीर्तनका सौभाग्य प्राप्त कर स्वयंको धन्य अनुभव कर रहा हूँ।

इन महापुरुषका जन्म ७ फरवरी सन् १९२१ मौनी अमावस्याके दिन बिहार प्रदेशके बक्सर जिलेके अन्तर्गत तिवारीपुर नामक ग्राममें एक धनाढ्य, विद्वान् एवं उच्च कोटिके भक्त–ब्राह्मण परिवारमें पिता श्रीबालेश्वरनाथ और माता श्रीमती लक्ष्मीदेवीको आश्रयकर हुआ। तिवारीपुर ग्राम पतितपावनी भगवती गङ्गाके तटपर अवस्थित है। सम्पूर्ण गाँवमें केवल ब्राह्मणोंका ही वास है। माता–पिता दोनों ही सच्चरित्र, परोपकारी, सत्यनिष्ठ तथा सर्वोपरि ‘श्री’ सम्प्रदायके आश्रित वैष्णव थे। आस–पासके क्षेत्रमें इनकी बड़ी मान–प्रतिष्ठा थी।

माता–पिताने इनका नाम श्रीमन् नारायण रखा। बचपनमें अत्यन्त शान्त रहनेके कारण इन्हें लोग भोलानाथ भी कहते थे। ये शिशु अवस्थासे ही सरलता, उदारता, परदुःखकातरता, धीर–स्थिर, प्रशान्त–मूर्त्ति मृदुभाषी थे। इनकी मृदु वाणीके श्रवणमात्रसे ही सबका हृदय विगलित हो जाता था। इनका कोमल स्वभाव, विनम्र एवं मधुर व्यवहार था। ये सत्यनिष्ठ तथा भगवान्‌में प्रगाढ़ श्रद्धा एवं विश्वास रखनेवाले थे। भविष्यमें इन्होंने अनेक जीवोंको दुःख–कष्टसे मुक्त किया। ये विद्याध्ययनके साथ–साथ खेलोंमें भी अत्यन्त मेधावी, आग्रही एवं उत्साही थे। सभी लोग इनके आचरण, आदर्श और मधुर व्यवहारसे अतिशय मुग्ध थे। इन्होंने अध्ययन समाप्तकर पुलिस विभागमें दायित्त्वपूर्ण पदपर सेवा प्रदान की।

नौकरीमें तैनातीके समय श्रीगौड़ीय वेदान्त समितिके विद्वान् प्रचारक(श्रीनरोत्तमानन्द ब्रह्मचारी, संन्यासके बाद श्रील भक्तिकमल मधुसूदन गोस्वामी महाराज)से इनकी भेंट हुई। उनसे शुद्ध भगवद् कथाका श्रवणकर नौकरी और जड़ विषय–वैभवकी चिन्ता–भावना सब इनको तुच्छ लगने लगी। दिन–प्रतिदिन विषयोंसे वैराग्य और ईश्वरमें अनुराग वर्धित होने लगा। एक ही चिन्ता रहती थी कि कब, किस प्रकारसे, कहाँ, कैसे महत्पुरुष व साधुके दर्शन मिलेंगे। श्रीकृष्णमें प्रगाढ़ अनुराग, विषयोंसे वैराग्य, सर्वोपरि भगवान्‌में ऐकान्तिक रूपसे निष्कपट भक्तिपूर्ण शरणागतिके कारण एक दिन इनको प्रकृत सत्य दर्शन एवं अतिमर्त्त्य महापुरुषका दर्शन प्राप्त करनेका मार्ग मिल गया और परमाराध्यतम श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी गुरुदेवके चरणकमलोंमें नित्यकालके लिए आत्मसमर्पण कर इन्होंने उनकी सेवा अङ्गीकार कर ली। भरे–पूरे परिवार और पुलिस विभागके उच्चपदको मलवत त्यागकर सन् १९४६में वे मठमें आ गये।

इनमें ज्ञान–गाम्भीर्य, श्रीचैतन्य महाप्रभुकी वाणी–प्रचार कार्यमें असामान्य दक्षता, प्रतिभा एवं गुरु–वैष्णव–भगवद् सेवामें स्वभाविक उत्साह, दृढ़ता, निष्ठा तथा आदर्श देखकर मेरे गुरुदेवने सन् १९५२ की श्रीगौराविर्भावकी शुभ तिथिपर इनको संन्यास प्रदान किया। गुरुदेवने अत्यन्त कृपाभिषिक्त स्नेहाशीर्वाद रूपमें इनको अल्प समयमें ही श्रीकेशवजी गौड़ीय मठ, मथुराका विराट् दायित्त्व दे दिया। राष्ट्रभाषा हिन्दीमें गौड़ीय–ग्रन्थोंके अनुवाद, प्रकाशन और सम्पादनके द्वारा ये विश्व–प्रसिद्ध हो गये।

पूज्यपाद नारायण गोस्वामी महाराजने एक स्तम्भके रूपमें श्रीगौड़ीय वेदान्त समितिका गुरुत्वपूर्ण–दायित्त्व निर्वाह किया। ये गुरुदेवके गुरुभ्राताओंसे हृार्दिक प्रीति और उनका अत्यन्त आदर करते थे, तथा अपने गुरुभ्राताओंके लिए उनके हर कष्टमें सदैव सेवा–रत रहते थे। श्रीसमितिके प्राक्तन आचार्य पूज्यपाद वामन गोस्वामी महाराजके साथ श्रील महाराजजीका एक अन्तरङ्ग घनिष्ठ सम्बन्ध था। वे श्रील महाराजजीको अपना Guardian मानते थे, तथा इनके आदेशके बिना किसीको भी नाम–दीक्षा–संन्यास नहीं देते थे। इन्होंने बृहद्–मृदङ्ग (ग्रन्थ–प्रकाशन) की सेवामें मुझे जो भी दायित्त्व प्रदान किया, उसको मैंने श्रील गुरुदेवकी कृपासे और इनके आशीर्वादसे सम्पन्न किया। त्रिताप–दग्ध संसार–कारागारमें आबद्ध समस्त जगत्‌वासियोंको दुःख दुर्दशासे मुक्त करके शुद्ध भक्तिमार्गकी शिक्षा प्रदान करके इन्होंने सर्वोत्तम उपकार किया। बहुत कम समयमें इनके भजनादर्शसे आकृष्ट होकर अनेक शिक्षित विद्वान् व्यक्तियोंने इनका चरणाश्रयकर अपना जीवन धन्य किया।

श्रील महाराजजीका भजनादर्श और करुणामृत–वर्षण समस्त जगत्‌वासियोंका उद्धार करनेके लिए था। इन्होंने व्रजके कुछ लुप्त तीर्थस्थानोंका जीर्णोद्धार किया, कई कुण्डोंका विशोधन कराया। मथुरामें यमुनापार ईशापुरमें भव्य श्रीदुर्वासा–ऋषि गौड़ीय आश्रमका, नवद्वीपमें श्रीश्रीकेशवजी गौड़ीय मठका, गोवर्धनमें श्रीगिरिधारी गौड़ीय मठ आदिका निर्माण इनके द्वारा ही करवाया गया। श्रील महाराजजी अमानी–मानद गुणोंके मूर्त्तिमान् स्वरूप थे। भगवान्‌की सेवा, श्रील गुरुदेवकी सेवा, वैष्णवोंकी सेवा, श्रीनामकी सेवामे वे अद्वितीय थे। श्रील महाराजजीके द्वारा सम्पूर्ण विश्वमें व्रजभक्तिके प्रचार–प्रसाररूपी महान योगदानके कारण व्रजके वैष्णवोंने इनको ‘युगाचार्य’की उपाधिसे विभूषित किया।

श्रील महाराजजीने ९० वर्षकी आयुतक इस जगत्‌में रहकर अनन्त करुणाधारामें जगत्‌वासियोंको अवगाहन कराया। वे २९ दिसम्बर २०१० को समस्त आश्रितजनोंको नित्य विरह–सिन्धुमें निमग्नकर अपने श्रीगुरुदेवके समस्त मनोऽभीष्टको सार्थक कर नित्यलीलाधारी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराधाविनोदविहारीजी, गौर–गदाधर, श्रीजगन्नाथदेवकी लीला स्मरण करते हुए नित्यलीलामें अपने परमाराध्यतम श्रील गुरुदेवके श्रीचरणसान्निध्यमें लौट गये। उनके दिव्य कलेवरको श्रीधाम पुरीसे श्रीधाम नवद्वीप लाकर श्रीश्रीकेशवजी गौड़ीय मठमें समाधिस्थ किया गया। श्रील महाराजजीका सौम्य मुखारविन्द आज भी सर्वदा स्मृतिपट अङ्कित रहता है।

अन्तमें श्रील महाराजजीके श्रीचरणोंमें प्रार्थनापूर्वक यही कृपाभिक्षा करता हूँ कि जिस व्रजभक्तिका वितरण आपने सम्पूर्ण विश्वमें किया है, उसी व्रजभक्तिके साधनमें मैं अग्रसर हो सकूँ। इति।

श्रीगुरु–वैष्णव–दासानुदास

ओमप्रकाश ब्रजवासी,
एम. ए., एल. एल. बी., साहित्यरत्न
जयपुर (राजस्थान)