Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sripad B.P. Muni Maharaja

India

ॐ विष्णुपाद श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजकी आविर्भाव–शतवार्षिकी-पुष्पाञ्जलि

मैंने श्रील भक्तिवेदान्त नारायण महाराज, श्रील भक्तिवेदान्त वामन महाराज एवं श्रील भक्तिवेदान्त त्रिविक्रम महाराजके विषयमें सुना था कि ये श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजके अत्यन्त योग्य एवं प्रिय शिष्य तथा श्रीगौड़ीय वेदान्त समितिके तीन स्तम्भ स्वरूप हैं। किन्तु, मैं इच्छा करने पर भी इनके दर्शन नहीं कर पाता था, क्योंकि कि मैं अपने मठकी सेवाओंमें व्यस्त रहता था तथा मेरा बाहर प्रचारमें भी जाना नहीं होता था। परवर्त्ती कालमें जब श्रील नारायण महाराज पुरीमें मठ करनेके उद्देश्यसे सिंहानिया प्रभुके घरपर आये थे, उस समय मैं वहाँ दूध लेने जाता था। मैं दूरसे ही श्रील नारायण महाराजको प्रणाम किया करता था, उनके निकटमें नहीं जा पाता था। कारण–मैं सोचता था कि श्रील महाराजजी तो भजनशील हैं, मैं निकटमें जाकर क्या कहूँगा, कुछ भी तो नहीं जानता। किन्‍तु, एक दिन श्रील महाराजजीने कृपा करके मुझे अपने निकटमें बुलाया। यह बहुत अच्छा हुआ और इसे मैंने अपना सौभाग्य माना। श्रील महाराजजी द्वारा मुझे बुलानेका कुछ विशेष कारण था। उस समय हमारे मठमें कुछ असुविधाएँ चल रही थीं, इसलिये मुझे देखकर महाराजजीने हमारे मठके विषयमें जिज्ञासा करनेके लिये मुझे बुलाया था। श्रील महाराजजी की यह इच्छा थी कि वह हमारे मठकी असुविधाओंका समाधान करनेके लिये कुछ सहायता करें, क्योंकि मेरे गुरु महाराज श्रीश्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्‍ती गोस्वामी महाराजजीने भी श्रील भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजके अप्रकटके पश्चात्‍ श्रीदेवानन्‍द गौड़ीय मठ–गौड़ीय वेदान्त समितिमें सब लोगोंकी एक साथ मिलकर गुरुसेवा करनेकी व्यवस्था करनेमें सहायता की थी।

इसके पश्चात्‍ श्रील महाराजजी जब पुनः पुरी आये तो द्वितीय बार उनसे वार्तालाप हुआ। श्रील महाराजजीने मुझसे कहा कि मेरी इच्छा है कि आपके गुरु महाराज द्वारा प्रकाशित ‘किरण-बिन्‍दु-कणा’ (श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा रचित श्रीउज्ज्वलनीलमणि किरण, श्रीभक्तिरसामृतसिन्‍धु बिन्‍दु, श्रीभागवतामृत-कणा) का मैं हिन्‍दी भाषामें अनुवाद करूँ। क्या आपके पासमें ये तीनों ग्रन्‍थ हैं? मैंने महाराजजीसे कहा कि मैं निश्चित रूपसे तो नहीं कह सकता, किन्‍तु यदि ये ग्रन्‍थ उपलब्ध होंगे तो मैं कल अवश्य ही ले करके आऊँगा। अगले दिन जब मैंने उन ग्रन्थोंको लाकर श्रील महाराजजीको दिया तो वे अत्यन्‍त प्रसन्न हुए। तत्पश्चात्‍ महाराजजीने उन ग्रन्‍थोंका हिन्‍दीमें अनुवाद करके प्रकाशित भी करवाया। फिर पुन: पुरी आने पर एकदिन श्रील महाराजजीने मुझसे कहा, ‘‘मुनि महाराज! मुझसे एक भूल हो गई है। मैंने ये ग्रन्‍थ आपके गुरु महाराजके ग्रन्‍थोंसे अनुवाद किये हैं, इसलिये उनका नाम देना उचित था। किसी कारणवशतः मैं उनके नामका उल्लेख नहीं कर पाया। अगली बार पुनः प्रकाशित करने पर उनका नाम अवश्य उल्लिखित करूँगा।’’ मैंने कहा कि महाराजजी यह आपके ऊपर निर्भर है, आप जैसा भी करना चाहें।

हमारे गुरु महाराजके अप्रकट होनेके पश्चात्‍ जब हमारे मठमें कुछ मामला-मुकद्दमा हुआ तो श्रील वामन गोस्वामी महाराजके आश्रित गौर प्रभुने हमारे मठके विरोधी पक्षका समर्थन किया। इसे जानकर श्रील महाराजजी गौर प्रभुपर क्रोधित होकर बोले कि तुम मठमें रहनेवाले व्यक्तिका पक्ष न लेकर मठके बाहर रहनेवाले व्यक्तिका पक्ष लेते हो। कुछ समय पश्चात्‍ नीलाचल गौड़ीय मठमें उत्सवका आयोजन हुआ, तब गौर प्रभुने हमें निमन्त्रण दिया। किन्‍तु मैं गया नहीं। यह जानकर श्रील महाराजजीने किसीके माध्यमसे मुझे सन्‍देश भिजवाया कि मुनि महाराजको कहना कि नारायण महाराजने निमन्‍त्रण दिया है, एक साथमें प्रसाद पायेंगे। तब मैं अत्यधिक आनन्‍दित हुआ। यद्यपि एक साथमें प्रसाद पानेका सौभाग्य तो नहीं मिला, तथापि वहाँ पर मैंने महाराजजीसे कहा कि मेरा एक प्रश्न है। आप ही हमारे बड़े हैं, मैं आपके अतिरिक्त और किससे प्रश्न करूँ? मैंने जिज्ञासा की, “श्रील प्रभुपादके समयमें गौड़ीय कण्ठहारमें देखा जाता है कि ‘आराध्यो भगवान्‍ ब्रजेशतनय:’ श्लोकके रचयितामें ‘चक्रवर्ती ठाकुर’ का नाम लिखा था, किन्तु, आजकलके समयमें गौड़ीय कण्ठहारमें उसी श्लोकके रचयिताके नाममें ‘श्रीनाथ चक्रवर्ती ठाकुर’ लिखा जाता है। क्या श्रीनाथ चक्रवर्ती ठाकुर और श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर एक ही व्यक्ति नहीं हैं?” श्रील महाराजजीने कहा, “नहीं, ये दोनों अलग-अलग हैं। यह श्लोक श्रीनाथ चक्रवर्ती ठाकुरने लिखा है।’’

एक समय श्रील महाराजजी एक सुहृदकी भाँति हमारे मठके मामला-मुकद्दमाके सम्बन्‍धमें कुछ वार्तालाप करने मठमें आये थे, किन्‍तु मैंने महाराजजीसे उस विषयमें वार्तालाप करनेसे मना कर दिया। बादमें मुझे अनुभव हुआ कि इस विषयमें मेरा अपराध हुआ है। तब मैं महाराजजीसे भेंट करने नीलाचल गौड़ीय मठमें गया, तो उस समय वे पाठ कर रहे थे। कथाके पश्चात्‍ मैंने जब उन्‍हें प्रणाम किया तो मुझे प्रतीत हुआ कि श्रील महाराजजीके मनमें कुछ भी बात नहीं है। मैंने उनसे क्षमा प्रार्थना करते हुए कहा, ‘‘महाराजजी! जाने-अनजानेमें मेरा यदि कुछ अपराध हुआ हो तो आप उसे क्षमा कर दीजिए।’’ यह सुनकर महाराजजीने कहा, ‘‘मुनि महाराज, ऐसा कभी भी नहीं कहना, हमारा द्वार आपके लिये सब समय खुला है, यदि भविष्यमें कोई भी आवश्यकता हो तो निसंकोच हमारे पास आ जाना।’’

जब श्रील महाराजजी अप्रकट लीलासे पूर्व अस्वस्थ लीला प्रकाशित करते हुए पुरीमें अवस्थान कर रहे थे, तब मैं उनके दर्शन करनेके लिये श्रीदामोदर गौड़ीय मठ, चक्रतीर्थमें गया था। उस समय उनकी अस्वस्थ लीलाके कारण उनसे साक्षात्कार करना सम्भव नहीं था। किन्‍तु जब मैंने उनके सेवकसे अनुरोध किया तो वह मुझे श्रील महाराजजीके कक्षमें ले गये। मैंने महाराजजीको प्रणाम किया। तब उन भक्तने मेरा परिचय देते हुए कहा, “गुरुदेव, सारस्वत गौड़ीय आसनसे श्रील भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराजके चरणाश्रित मुनि महाराज आये है।” श्रील महाराजजीने अस्वस्थ होनेके कारण कुछ समयके पश्चात्‍ दो बार उल्लेख करते हुए कहा, “सिद्धान्ती महाराज! सिद्धान्ती महाराज! हम लोगोंको बाँध दिये थे।” मैंने कहा, “महाराजजी! आप स्वस्थ हो जाइये। मेरी जगन्नाथजीसे यही प्रार्थना है। यदि आप चले गये तो हमारा गौड़ीय गगन खाली हो जायेगा। एक-एक करके श्रील त्रिविक्रम महाराज, श्रील वामन महाराज सभी चले गये हैं। आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जायें।” तब उनको प्रणाम करनेके पश्चात्‍ मैं वहाँसे चला आया।

कुछ दिनोंके पश्चात्‍ श्रील महाराजजीके अप्रकट होनेपर उन्‍हें समाधिके लिये नवद्वीप ले जाते समय श्रीजगन्नाथजीके दर्शनके लिये उनकी गाड़ीको सिंहद्वारके पास लाया गया, तब मैं भी वहाँ पर किसी कार्यसे आया था। श्रील महाराजजीको गाड़ीकी बीचवाली सीट पर बिठाया गया था, महाराजजीके दर्शन करके मैंने उनको प्रणाम किया। उनके दर्शन करके मैं समझ नहीं पाया कि वह अप्रकट हो गये हैं। बादमें मुझे भक्तोंसे ज्ञात हुआ कि वह अप्रकट हो गये हैं।

श्रील नारायण महाराजजीने शिक्षा एवं शासनके द्वारा अनेक भक्तोंको प्रशिक्षित किया, जिस कारण वे भक्तजन इतनी सुन्‍दर हरिकथा कह पाते हैं। एक समय श्रील महाराजजीके चरणाश्रित श्रीशुभानन्‍द प्रभु (श्रीभक्तिवेदान्‍त तीर्थ महाराज)ने नीलाचल गौड़ीय मठमें रस-विचारके सम्बन्‍धमें सुन्‍दररूपसे हरिकथा की। उसे श्रवण करके मुझे अनुभव हुआ कि महाराजजी किस प्रकार स्नेह एवं शासनसे भक्तोंको प्रशिक्षित करते हैं। एक समय मेरे गुरुभ्राता श्रीरसानन्‍द प्रभु (श्रीभक्तिवेदान्‍त श्रीधर महाराज) ने मुझसे कहा, ‘‘मुनि महाराज, जिस प्रकार आप मेधावी हैं, यदि आप श्रील महाराजजीके पास रहकर शिक्षा ग्रहण करते तो सम्पूर्ण विश्वमें महाप्रभुकी वाणीका प्रचार करके गुरुवर्गकी सेवा कर पाते।’’ यह सुनकर कर मैंने कहा कि इस जन्ममें तो मुझे इतनेमें ही सन्‍तुष्ट होना पड़ेगा।

आज श्रील भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजकी आविर्भाव शतवार्षिकीके उपलक्षमें इन्हीं कुछ स्मृतियोंके द्वारा उनके श्रीचरणोंमें पुष्पाञ्जलि अर्पित करता हूँ, वे प्रसन्न होकर मुझपर अहैतुकी कृपा वर्षण करें।

Sripad Bhakti Pranat Muni Maharaja
(Disciple of Sri Srimad Bhakti Srirupa Siddhanti Maharaja)