Śrī Śrīmad Bhaktivedānta Nārāyana Gosvāmī Mahāraja  •  100th Anniversary

Sripad B.V. Madhusudan Maharaja

India, Vrindavan

।। श्रीश्रीगुरु-गौराङ्गौ जयतः।।

ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीकी शतवार्षिकी-आविर्भाव-तिथिके उपलक्ष्यमें—

देवं नारायणं वन्दे वृन्दावन-निवासिनम्।
अनन्त गुण-भूषिताः कोटि वात्सल्य-रूपिणम्।।

मदीय संन्यास तथा शिक्षा गुरुदेव—ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजी की महिमा अनन्त तथा अपार है—"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" अर्थात् वाणी मनके सहित जिनको प्राप्त करनेमें असमर्थ होकर प्रत्यावर्तन अर्थात् वापस लौट आती है। श्रील गुरुदेवका जन्म बिहार प्रान्तके बक्सर जिलान्तर्गत तिवारीपुर ग्राममें सन् १९२१ माघ मासकी मौनी अमावस्या तिथिमें हुआ था। श्रील गुरुदेव १९४६ ईसवींमें सर्वस्व त्यागकर सम्पूर्णरूपसे अपने परमाराध्यतम श्रीलगुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीके श्रीचरणाश्रय ग्रहणकर उनके आदेश-निर्देशमें श्रीगुरु-वैष्णव तथा भगवान्‌की सेवामें संलग्न रहते हुए उनकी प्रीति विधान करने लगे।

सन् १९५२ में इनके गुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीने एक साथ श्रीमान् सज्जन सेवक ब्रह्मचारी, श्रीमान् राधानाथ दासाधिकारीऔर श्रीमान् गौरनारायण दासाधिकारीको संन्यास प्रदान किया एवं संन्यासके पश्चात् इनके नाम हुए क्रमशः ॐ विष्णुपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज, ॐ विष्णुपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त त्रिविक्रम गोस्वामी महाराज तथा ॐ विष्णुपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराज। तत्पश्चात्‌ श्रीलगुरुदेव अर्थात् श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजको सन् १९५४ में इनके गुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजने मथुरामें श्रीकेशवजी गौड़ीय मठकी प्रतिष्ठा कर उस मठकी व्यवस्था तथा साथमें हिन्दी मासिक श्रीभागवत-पत्रिकाका सम्पादन एवं सम्पूर्ण उत्तर भारतमें प्रचारका दायित्व दिया।

इस प्रकार सुदीर्घकाल तक अपने श्रीलगुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीके साथ तथा स्वयं भक्तजनोंके साथ भारतवर्षके कोने-कोनेमें विशुद्ध भक्तिका प्रचारकर श्रील गुरुदेवने असंख्य जीवोंको आत्मकल्याण स्वरूप श्रीभगवद्भक्तिके लिए प्रेरितकर उनके परममंगलका विधान किया। तदोपरान्त १९९६ से आरम्भकर २०१० पर्यन्त प्रायः सभी स्थानोंमें जैसे अमेरिका, इग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, हॉलेण्ड, चीन, नेपालादिमें अनेक बार भ्रमण करते हुए विशुद्धभक्ति गङ्गा प्रवाहमें कलिहत जीवोंको स्नान-पान कराकर परम शीतलत तथा धन्यातिधन्यकर उन्हें श्रीराधारमण विहारीजू तथा श्रीराधाविनोदविहारीजूकी सेवा प्रदानकर अत्यन्त दयालुताका परिचय दिया। श्रीलगुरुदेवने अपनी शिक्षाओं तथा लेखनीके माध्यमसे असंख्य दुर्लभ ग्रन्थोंका प्रकाशनकर विश्ववासियोंका जो उपकार किया है, वह सुदीर्घकाल तक अविस्मरणीय रहेगा।

सन् २९ दिसम्बर २०१० में श्रीलगुरुदेवने श्रीमन्महाप्रभुके विप्रलम्भ-भाव प्रकटनके स्थान श्रीजगन्नाथ पुरीमें यह स्मरण करते हुए कि कैसे श्रीकृष्ण कालिन्दीके तटपर वेणुवादन करते हुए अनेक प्रसन्नमुखारविन्दवाली गोपाङ्गनाओंके साथ क्रीड़ा परायण होते हुए भी श्रीमती राधिकाके प्रति अतिशय प्रेम प्रकाशित कर रहे हैं, ऐसी श्रीमती राधिकाके भावोंमें निमग्न होकर अप्रपंच अर्थात् नित्यलीलामें प्रवेश किया।

आश्रय विग्रह शिक्षागुरु-अभिधेयविग्रह हैं। भगवत्स्वरूपभूता महाशक्ति भक्ति ही अभिधेय है, अतएव शिक्षागुरु सम्बन्धज्ञानप्रदाता दीक्षागुरुदेवसे अभिन्न हैं। मदीय सम्बन्धज्ञानदाता परमाराध्यतम दीक्षागुरुदेव ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिजीवन जनार्दन गोस्वामी महाराजजीका परमाराध्यतम शिक्षागुरुदेव ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीके साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध था। प्रायः दोनोंमें ही परस्पर श्रीमती राधिकाके भावोंका आदान प्रदान होता रहता था, क्योंकि श्रील प्रभुपादके गणोंमें श्रीराधिका आनुगत्यका भाव मेरे दीक्षागुरुदेवमें स्पष्ट रूपमें था और उन्होंने किसी समय मदीय शिक्षागुरुदेवसे इस भावोल्लासरतिको जीवित रखनेका निर्देश दिया था। जिस निर्देशका अनुसरण करते हुए श्रीलगुरुदेवने उन भावोंका दूसरोंके हृदयमें संचार किया।

जब परमाराध्यतम शिक्षागुरुदेव ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजी विश्व प्रचारके लिए गये, तो उन्होंने देखा कि प्रायः सर्वत्र सभी निताइ-गौरचन्द्रकी उपासनामें निमज्जित हैं, श्रीराधामाधव युगलकिशोरकी साक्षात् भक्तिमें लोग झिझक रहे हैं। तब इन्होंने कहा कि “गौर प्रेम रसाणवे से तरङ्गे जेबा डूबे, से राधामाधव अन्तरङ्ग।” जो लोग शचीनन्दन गौरहरिके प्रेमरस समुद्रकी तरङ्गोंमें अवगाहन करते हैं, वे ही श्रीराधामाधवकी अन्तरङ्ग लीलाओंमें प्रवेश करते हैं। “निताइयेर करुणा हबे, ब्रजे राधाकृष्ण पावे, धर निताइयेर चरण दुखानि"। श्रीमन्‌नित्यानन्दप्रभुकी करुणा होनेपर ही ब्रजमें श्रीराधामाधवकी सेवा प्राप्त होगी, इसीलिए उनके दोनों चरणकमलोंका आश्रय ग्रहण करो।

यथा यथा गौरपदारविन्दे विन्देत भक्तिं कृतपुण्यराशिः।
तथा तथोत्सर्पपति हृद्यकस्माद्राधापदाम्भोज-सुधाम्बुराशि।।
–(श्रीचैतन्यचन्द्रामृत ८८)

श्रीलगुरुदेवने बतलाया कि जो बहुत सुकृति सम्पन्न हैं, वे जितने परिमाणमें श्रीगौरसुन्दरके चरणारविन्दोंकी भक्ति करेंगे, उतनी मात्रामें उनके हृदयमें श्रीमती राधिकाके चरणकमलोंका प्रेमरूपी अमृत समुद्र आविर्भूत होगा। इस प्रकार श्रीलगुरुदेवकी अनेक स्मृतियाँ हृदयपटल पर अङ्कित हैं।

जब श्रीलगुरुदेव श्रीमद्भागवत, श्रीचैतन्यचरितामृत, जैवधर्मादि विशेषकर श्रीबृहद्भगवतामृतके अन्तर्गत रसायनका पाठ करते, जिसमें वेणुगीत, प्रणयगीत, गोपीगीत, युगलगीत, भ्रमरगीत श्रीरासपञ्चाध्यायी जो कि श्रीमद्भागवतके सार एवं प्राणस्वरूप हैं तो उनके एक-एक शब्द, वाक्य, भावभङ्गिमा, ध्वनि हृदयको इस प्रकार स्पर्श करती थी कि उस समय देह-गेहादिका कुछ भी स्मरण नहीं रह जाता था, ठीक उसी प्रकार जैसे–

तन्मनस्कास्तदालापास्तद्विचेष्टास्तदात्मिकाः।
तद्गुणानेव गायन्त्यो नात्मागाराणि सस्मरुः।।
–(श्रीमद्भा० १०/३०/४४)

रासलीलामें श्रीकृष्णके अन्तर्धान होने पर गोपियोंकी ऐसी दशा हुई थी, क्योंकि उनका मन श्रीकृष्णमय हो गया था, वाणीसे वे केवल श्रीकृष्णकी कथाएँ और शरीर द्वारा केवल श्रीकृष्णकी प्रत्येक चेष्टाएँ कर रही थीं, उनका रोम-रोम उनकी आत्मा सब कुछ श्रीकृष्णमयी हो रही थीं। वे केवल कृष्णके गुणों और लीलाओंका ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने देहकी भी सुध-बुध न थी, तो गृहकी स्मृति कैसे होती? अर्थात् वे श्रीकृष्णकी तन्मयतामें सब कुछ विस्मृत हो गयीं। इसी प्रकार श्रीलगुरुदेव श्रीकृष्ण कथाके माध्यमसे श्रोता-वक्ता सबको श्रीकृष्णके अतिरिक्त सब कुछ भुला देते थे। श्रील गुरुदेवकी कथाकी एक विशेषता थी कि सब समय अपनी कथाओंमें श्रीमती राधिका पक्षका समर्थन किया करते थे।

देवं नारायणं वन्दे वृन्दावन-निवासिनम्।
अनन्त गुण-भूषिताः कोटि वात्सल्य-रूपिणम्।।१।।

मैं परमाराध्यतम शिक्षा एवं संन्यास गुरुदेव ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशतश्री श्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजीके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो श्रीवृन्दावनमें नित्य निवास करते हैं तथा जो अनन्त गुणोंके द्वारा विभूषित हैं एवं कोटि वात्सल्यके मूर्तिमान् स्वरूप हैं।।१।।

केशवगुण गानेन पुलकाश्रु-सुशोभितः।
अक्ष्णो प्रमुदितानन्दः भावाढ्य स्वरूपिणे।।२।।

जो अपने श्रीगुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराजजीकी गुणावलियोंका गान करते हुए पुलकाश्रु आदि भावोंके द्वारा अत्यन्त सुशोभित हो जाते थे, प्रमोदानन्दसे परिपूर्ण नयनोंवाले ऐसी भाव सम्पत्तिसे युक्त स्वरूप श्रील गुरुदेव श्रीश्रीमद्भक्तिवेदान्त नारायण गोस्वामी महाराजजी थे।।२।।

राधापक्षपातित्वेन कृष्णपक्ष पराजितः।
अत्युल्लास-हर्षानन्दः तस्मै श्रीगुरवे नमः।।३।।

जो सदा श्रीमती राधारानीके पक्षपाती थे, श्रीकृष्णपक्ष तथा विपक्षकी पराजयमे अत्यन्त उल्लसित, हर्षित और आनन्दित होते थे, ऐसे श्रील गुरुदेवको बारम्बार नमस्कार है।।३॥

श्रीराधागुणकीर्तने भावनिमग्न मानसः।
प्रतिपदरसास्वादं आह्लादितान्तरात्मने।।४।।

जो श्रीमती राधारानीकी गुणावलियोंका कीर्तन करते हुए भाव निमग्न मानसवाले थे, प्रतिपद रसास्वादन करते हुए अन्तरात्मामें आह्लादित रहते थे।।४।।

श्रीरूप भाव भावितः श्रीरूपानुगत्येन यः।
श्रीचैतन्यमनोऽभीष्टं प्रचाराचारः कारिणे।।५।।

जो श्रीचैतन्य मनोऽभीष्ट संस्थापक श्रील रूपगोस्वामीजीके आनुगत्यमें उन्हींके भावमें भावित हैं तथा श्रील रूपगोस्वामीपादके आचार-विचारके प्रचारक हैं।।५।।

गौड़ीय ग्रन्थ विश्वेषु सर्वभाषा प्रकाशिने।
गौराङ्गस्य भक्तिश्रियं वितरणमुदारिणे।।६।।

जो सम्पूर्ण विश्वमें तथा समस्त भाषाओंमें श्रीगौड़ीय ग्रन्थोंको प्रकाशित करनेवाले हैं तथा श्रीमन्महाप्रभुकी भक्तिश्रीका वितरण करनेमें उदार स्वरूप हैं।।६।।

ब्रजक्षेत्रे सुविख्यातः ब्रजवासीजन-प्रियः।
युगाचार्यगुरुं वन्दे ब्रजविभूतिरूपिणे।।७।।

जो ब्रजमण्डलमें सुविख्यात हैं एवं ब्रजवासीजनोंके प्रिय हैं, ऐसे ब्रजविभूति स्वरूप 'युगाचार्य' श्रीलगुरुदेवकी वन्दना करता हूँ।।७।।

हे राधिका प्रियजन! हे ललिता गणानुग!
हे श्रीनारायणदेव! जयति कीर्ति सर्वदा।।८।।

हे श्रीराधिका प्रियजन! हे श्रीललिता गणानुग! हे श्रील गुरुदेव! आपकी कीर्ति सर्वदा जययुक्त हो!।।८।।

स काकुति वचनेन प्रार्थयामि मुहुर्मुहुः ।
सर्वदा सर्वकालेषु मतिरस्तु पदाब्जयोः।।९।।

कातरतासे परिपूर्ण वचनोंके द्वारा बारम्बार यही प्रार्थना करता हूँ कि सर्वदा सर्वकालमें मेरी मति आपके श्रीचरणकमलोंमें संलग्न रहे।।९।।

-त्रिदण्डि भिक्षु
भक्तिवेदान्त मधुसूदन